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समलैंगिक सम्बन्ध और मानव अधिकार

समलैंगिक सम्बन्ध और मानव अधिकार
सबसे पहेले तो मैं माननीय सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देना चाहूंगा, समलैंगिक सम्बन्धोंको ग़ैरक़ानूनी करार देकर इस देश और समाज के भविष्य को नैतिक सुरक्षा प्रदान करनेके लिए.

सबसे पहेले तो हमें ये समजना पड़ेगा कि वास्तवमे मानव अधिकार क्या है. हमारे नए नवेले सुधारवादी संगठन पश्चिम को अपना आदर्श समज कर देशमे बदलावकी मुहीम चलनेका प्रयास करते है. वास्तवमे मानव जीवनका उनका कोई तलस्पर्शी अभ्यास नहीं होता. किसी संस्थानसे कोई डिग्री प्राप्त करनेसे कोई व्यक्ति समाज या मानव व्यवहारका ज्ञाता नहीं हो जाता. उसके लिए उसे जीवन के और संस्कृतिके वास्तविक आयामो का अभ्यास करना चाहिए.

मानवका मूलभूत अधिकार रोटी,कपड़ा और मकान एवं सुरक्षा हो सकता है, अप्राकृतिक आदतोंका जतन नहीं. वास्तवमे जिस क्षेत्रमे मानव अधिकार के बहोत सारे काम बाकी पड़े है वहाँ काम करनेके बजाये कुछ संगठन “समलैंगिकों के मानव अधिकार” जैसे निरर्थक मामलों पर समय और शक्ति का व्यय करते है.

समलैंगिक सम्बन्ध एक विकृति है, कोई सहज प्राकृतिक आवश्यकता नहीं है. यदि वास्तवमे समलैंगिकोको मदद करनी है तो उनकी मानसिक विकृति दूर करनेका प्रयास करना चाहिए,उन्हें स्वीकृत बनाने का प्रयास या तो मूर्खता है या फिर समाज विरोधी प्रवृत्ति है. इन संगठनों को अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए उन लोगों की और जिनको वास्तव में ऐसे सहारे कि आवश्यकता है. खास कर मनो रोगीयों के लिए हमारे समाज को बहोत कुछ करने की आवश्यकता है. जिनका मानसिक विकास सुचारु रूप से नहीं होता ऐसे बच्चोंके लिए भी बहोत कुछ करने की आवश्यकता है.

प्रकृतीने, ईश्वरने, नर नारी के रूपमें हमारे संसार को एक अद्भुत वैविध्यपूर्ण आशीर्वाद प्रदान किया है. मात्र शरीर सम्बन्ध के लिए ही नहीं अपितु अन्य अनेक सम्बन्धोंमे नर और नारी से बना परिवार एवं समाज हमें भावनाओं और सुरक्षाका धनी बनाता है. पति और पत्नी, भाई और बहन, माता और पिता, चाचा चची, मामा मामी, दादा दादी, नाना नानी, बेटा बेटी … याद कीजिये इन तमाम सम्बन्धोंमे नर और नारी की सहज स्वभावगत भूमिका. यह वैविध्य, भावनाएं या सुरक्षा मात्र नर और नर या नारी और नारी के सम्बन्धों से सम्भव नहीं है. सबसे पहेले तो वहाँ परिवार पनपना ही सम्भव नहीं है. किसी भी प्रकारकी वनस्पति को उगानेके लिए ज़मीन और बीजकी आवश्यकता होती है, यह एक प्राकृतिक संरचना है और उसका आदर करके ही हम वनस्पति उगा सकते है. उसी प्रकारसे शरीर सम्बन्धके लिए भी कुछ कुदरतके नियम है जिनका पालन करना अनिवार्य है. इन सम्बंधोंके लिए भी आयु मर्यादाएं निश्चित करना आवश्यक है. किसीकी मानसिक विकृतिको सामाजिक या क़ानूनी स्वीकृति नहीं दी जा सकती.

समलैंगिक सम्बन्धोंको क़ानूनी बनाने का अभिप्राय देने वाले लोग बहुधा पश्चिम के देशों का उदहारण देते है, जोकि अति हास्यास्पद है. क्योंकि इन लोगोंने पश्चिमी देशोंमें बढती जा रही सामाजिक समस्याओंका कोई अभ्यास करने का प्रयास नहीं किया. मुक्त साहचर्यकी आदत न सिर्फ युवावस्थामे मानसिक और शारीरिक व्याधि देती है बल्कि समाज व्यवस्थाभी नष्ट कर रही है. नष्ट हो रही समाज और कुटुंब व्यवस्थाके कारण जो समस्याएं पैदा हो रही है वह वास्तवमे भयानक है. हमारी सभ्यताका विकास अति प्राचीन है और हमारे पास आर्ष द्रष्टाओंकी दी हुई समाज और कुटुंब व्यवस्था है. मैं वेद कालीन व्यवस्थाकी बात कर रहा हूँ, अनैतिक वर्ण व्यवस्थाकी नहीं. याद रहे वेदों को सुचारु रूपसे संगठित करने वाले महर्षि वेद व्यासजीके माताजी मछुआरेकी कन्या थे और इस वास्तविकताको सब जानते थे, जिसपे किसीने आपत्ति नहीं जताई थी. उनकी उसी माता सत्यवतीने जब हस्तिनापुरके महाराजा शांतनुके साथ ब्याह किया और इतने बड़े सम्राज्यकी साम्राज्ञी बनी उसका किसीने विरोध नहीं किया था. ये बाते इसलिए याद दिलाना चाहता हूँ के हमें यदि इस जगत पर दोबारा अपना प्रभाव जमाना है तो हमें पूर्ण रूपसे भारतीय बनाना होगा. वास्तवमे भारतीयतामे श्रेष्ठता है. क्योंकि भारत की अधिष्ठात्री भारती अर्थात माँ सरस्वती है, जो की ज्ञान और संस्कृति देने वाली है.

एक बार मेरी एक पश्चिमी शिष्यने मुजसे सवाल किया, “गुरूजी, मुक्त सेक्स में ख्य खराबी है?” मैंने उसे जवाब दिया, “जिसे तुम मुक्त सेक्स कहती हो उसका चलन हमारे देश में भी है, हमारे देशमे भी सरे आम काम लीला देखने को मिलेगी.” वो यह सुन कर चौंक गयी.उसने पूछा, “ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा.” मैंने उसे कहा, “हमारे यहाँ ऐसी काम चेष्टाएँ सरे आम कुत्ते और गधे करते है.मनुष्य के पास अपनी गरिमा होती है. पुरुष के लिए स्त्रीकी और स्त्रीके लिए पुरुषकी गरिमा अत्यंत महत्वकी होती है और इन सम्बन्धों को आध्यात्मिक रूप से देखा जाता है इसलिए हमारे मनुष्य उसे सरे आम नहीं करते. जब भी हम आपके मुक्त सेक्स को सरे आम देखते है तो हमे हमारे कुत्ते और गधे याद आते है और हम आपके वैचारिक और नैतिक उत्थानके लिए ईश्वरसे प्रार्थना करते है.” मेरी बात सुनकर उसकी आंखोमे आंसू आगये. वो मेरी बात का मर्म समज गई. यह किस्सा मैंने इसलिए लिखा है कि हमारे कुछ पढ़ेलिखे लोगों के मनमे पश्चिम माने श्रेष्ठ ऐसी गलत फहमी है. हमारे लोक प्रिय अभिनेता आमिर खान बढ़ चढ़कर हमारे देश वासियोंको “अतिथि देवो भव” की शिक्षा टेलीविज़न के माध्यम से दे रहे है, इसमे वो देशका भला कर रहे है या देश का दुष्प्रचार कर रहे है वह कोई नहीं सोचता. हमारे कितने युवाओंकी ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशोमे हत्याएं हुई है यह आमिरखान महाशय नहीं जानते. ढोलबजाके एक ऑस्ट्रेलियाई युवती स्टेला की बात बार बार करके वो क्या सिद्ध करना चाहते है? कदाचित उनका संसर्ग ऐसे विदेशियोंके साथ नहीं हुआ जिन्हे हिंदुस्तान पहेली मुलाकातमे ही इतना भा गया की हमेशा के लिए दिल से हिंदुस्तानी हो गए. अंग्रेजी शासन ने हमें आत्म प्रताड़नाका इतना प्रशिक्षण दिया है की कोई भी किसीभी बात में बोल देता है, “येतो इंडिया है यार. यहाँ सब ऐसाही चलता है.” दुःख होता है ऐसा सुनकर. कुछ आधे अधूरे लोग जोकि पश्चिम के देशों में मौज मस्ती करने गए और चकाचौंध होकर आये उनके पासे सोच नहीं होती, चौंधियायी हुई आँखें और खुल हुआ मुंह होता है. वो ये नहीं जानते की पॉउंड स्टर्लिंग हिंदुस्तान से लुटे गए सोने पर मजबूत है. यदि हमें हमारे वो दिन वापस लाने है तो हमें हमारी अस्मिता बरकरार रखनी पड़ेगी. हमारा देश पथ दर्शकोंका देश है, विदेशी चकाचौंधमे पथ भ्रष्टोंका देश न बन जाए उसका ख्याल रखना है.

यदि समलैंगिकोंको सहाय करनी हो तो उनकी मनोचिकित्सा करानी चाहिए. उस प्रकारके सम्बंधोंको क़ानूनी या सामाजिक मान्यता देना उन्हीके लिए घातक साबित होगा. हमारी प्राचीन परम्परामे मानव और समाज के चार प्रमुख स्तम्भ है, “धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष”. काम को कतई नाकारा नहीं गया. हमारे यहाँ हर इच्छाको और भावनाको शिस्तबद्ध करनेकी परंपरा है जो की हमें श्रेष्ठ बनाई है. समय आ गया है जब धर्म गुरुभी युवा पीढ़ी को कामके विषयमे उचित शिस्तकी शिक्षा दें. कामको नकारना नहीं है, पर उचित शिस्त के साथ स्वीकारना है.