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कला : स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का भेद

Adhyatma
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Guruji Shri Shriyogeshvaraji : lecture at the Dhyan aur Jnana Shibir
Guruji Shri Shriyogeshvaraji : lecture at the Dhyan aur Jnana Shibir
कला : स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का भेद
पिछले दिनों एक बहुत ही दिलचस्प विवाद मीडियामें छाया रहा प्रसिद्ध अभिनेता और निर्माता कमल हासनकी फिल्म “विश्वरूपम” को लेकर. इस विवादके पीछे कई लोगोंकी मानसिकता सामने आती है. किसी एक धार्मिक विचारधारा का अनुसरण करनेवाले समुदायमेंसे कुछ लोगोंके द्वारा आपत्ति जताने पर इस फिल्मकी रिलीज़ पर दक्षिण भारतके कुछ राज्योंमे रोक लगादी गई. यही नहीं, फिल्मकी हिंदी भाषाकी आवृत्ति परभी आखरी समय तक रहस्य बना रहा. कला के कहे जाने वाले कदरदानोने भरसक आपत्ति जताई कि यह तो कलाके स्वातंत्र्य पर प्रहार है. इस पुरे बवालमे कुछ बड़े दिलचस्प मुद्दे है.
तामिलनाडूकी मुख्यमंत्री सुश्री जयललिताजी धार्मिक भावनाओंका कितना ख़याल है यह सामने आया. भलेही उन्होंने हिन्दू धर्मके सर्वोच्च स्थान पर बिराजने वाले कांची कामकोटी पीठके जगद्गुरु श्री शंकराचार्यजी श्री जयेंद्र सरस्वतीजीको दिपवालिके शुभ अवसर पर गिरफ्तार करवाकर अपनी धर्मं निरापक्षता साबित करदी हो, वे अवश्यही किसी धर्मं विशेष के प्रति न्यायिक बर्ताव प्रदर्शित करना नहीं चुकी. चलो, सुश्री जयललिताजीको कहीं तो धार्मिक भावनाओं का विचार आता है. हमारे धर्मं निरपेक्ष नेता लोगका प्रिय फैशन है “हिन्दू विरोधी” होना. संयमशील हिन्दू जनता हंसके इन बेवकुफोंको सहती रही है. कोई मुर्ख “भगवा आतंकवाद” शब्द बोल सकता है क्यूंकि उसे इतिहासका ज्ञान नहीं है.
“विश्वरूपम” फिल्म को लेकर चले विवादमे अभिनेता कमल हासनजीने जो टेलीविज़न कैमराके सामने परफॉर्म किया वह भी बेमिसाल है. उनहोंने यहाँ तक कहे डाला कि वो इस देश को छोड़कर चले जायेंगे. क्या वो वास्तवमे अपने आपको विश्वरूपम समजते है? उन्होंने कुछ अच्छी फिल्मे बनायीं है इसमें कोई शक नहीं किन्तु हमारे देशवासियोंनेभी तो उनको प्रेम, कीर्ति और धन दिया है. वो जो कुछभी है वह इस देशकी वजहसे है. कलाकी अभिव्यक्ति में समजदारी न हो तो कैसे चलेगा? यह देश और इसकी सांस्कृतिक विरासत किसी मकबूल फ़िदा हुसेनकी जागीर नहीं है. यदि कलाकार उसके मानसकी गन्दगी केनवास पर उतारे या फिल्ममें दिखाए उसे कलाका स्वातंत्र्य नहीं कहा जा सकता. स्वतंत्रता और स्वच्छंदतामें भेद है वह हर कलाकारको समजना होगा. हमारे उन महा बुद्धि धनों को भी समजना पड़ेगा कि बार बार पाश्चात्य देशोंके उदाहरण देकर यह न जतलायेकि हमें क्या करना है. आजके युगमें मुझे पश्चिमी विश्वका कोई भी देश ऐसा नहीं दिखता है जो हमें सभ्यताके नियम सिख सके.
मैं अपने युवा मित्रोंसे ख़ास अनुरोध करता हूँ, पश्चिमको अपना मार्गदर्शक बनानेसे पहेले वहांकी वास्तविकता जानिये. साल दो साल में अमरीका या ब्रिटेनसे आने वाले हमारे सवाई परदेसी भारतीय (जिन्हें NRI कहेलानेमे अधिक गर्व है) यहाँ आकर अधिकतर जूठ बोलते है. दुसरे देशोंकी वास्तविकता जाननी हो तो वहांके मूल नागारिकोंसे पूछिये. भ्रष्टाचार हर जगह है. वास्तवमे हमारा मीडिया अभी भी हमारे सामने सरकार और सरकारी कर्मचारियोंकी वास्तविक छबि पेश करता है. स्वतन्त्र कहे जाने वाले पश्चिम जगतमे अधिकतर वही छवि पेश की जाती है जो कि शासक चाहते हैं. न्याय व्यवस्थामे भी वहां पर भी भ्रष्टाचार होते है.
यदि हिन्दुओने “विश्वरूपम” टाइटल के लिए ही आपत्ति जताई होती तो? यह शब्द हमारे श्रीमद भगवद्गीताके “विश्वरूप दर्शन”के साथ सदियोंसे जुडा हुआ है. क्या इससे हिन्दू ऐसी आपत्ति जताएं कि कमल हासन अपने आपको अवतार साबित करना चाहते है? नहीं. हिन्दू ऐसा कभी नहीं करते है क्यूंकि ह्रदयकी विशालता हिंदुत्व का अभिन्न अंग है. हमारे धर्म निरपेक्ष नेतागणों को यह वास्तविकता कभी ध्यान पर नहीं आती.
इस विवाद के अवसर पर मेरी विशेष विज्ञप्ति कलाकारोंसे है कि आप जो कुछ भी सृजन करें, इतना अवश्य याद रखेंकी एस देश और समाज के प्रति आपका उत्तरदायित्व बनता है. कलाकी स्वतंत्रताके नाम पर आप स्वच्छंद नहीं हो सकते. यह देश कई मकबूल फ़िदा हुसेन और कमल हासन पैदा कर सकता है किन्तु हजारों साल से सभ्यतामे बेमिसाल यह देश किसी कमल हासन या मकबूल फ़िदा हुसेन का पैदा किया हुआ नहीं है. कितना भी उंचा कलाकार हो उसे यह समजना पड़ेगा कि इस देशके लिए गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, महात्मा गांधीजी, सरदार पटेल, सुभाषचन्द्र बोज़, भगत सिंह, स्वामी विवेकानंदजी जैसी अनेक विरल विभूतियाँ ऐतिहासिक धरोहर है और ऐसीही विभूतियाँ देशके लिए अनिवार्य है. अन्यथा किसीभी क्षेत्रका व्यक्ति चाहे कितानाही लोकप्रिय क्यूँ न हो देशके अस्तित्व या विकासके लिए अनिवार्य नहीं है. यदि स्वच्छंदी कलाकार अपना उत्तरदायित्व भूल कर ऊटपटांग कृतिको अपने अहंकारके पोषणका साधन बनाना चाहता हो तो देश वासियोंको एकजुट होकर उसे सहर्ष इस देशकी सीमाके बाहर रख देना चाहिए.
हमारी कलामें यदि हमारा दर्शन और संस्कृति होंगे तो पूरी दुनिया उसे सराहेगी किन्तु यदि पश्चिम की राह पर चलते हुए नंगापन और स्वच्छंदता होगी तो उसका कोई महत्व नहीं रहेगा. हमारी मूल सभ्यता और संस्कृतिकी विदेशोंमे क्या किमत है वह किसीभी बड़े नगरकी फूटपाथ पर बैठके लकड़ी,कपडे, मिटटी या कांचसे बनी सुशोभनकी वस्तुएं बेचनेवाला भी आसानीसे बता सकता है. सिर्फ हमारे महान कहे जाने वाले कलाकरोंको और कलाके स्वातन्त्र्यके नाम पर मुफ्त पब्लिसिटी चाहनेवाले निम्न बुद्धि आलोचकोंको इसका इल्म नहीं होता.

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