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गुरु : वास्तविक अर्थ और अर्वाचीन विसंगति

Adhyatma
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गुरु : वास्तविक अर्थ और अर्वाचीन विसंगति
Guruji Shri Shriyogeshvaraji at Naad Dhyanam Class in Moscow, Russia

गुरु शब्द का वास्तविक अर्थ होता है “वह जो अन्धकार दूर करता है”. अर्थात वह जो व्यक्ति के अज्ञान रूपी अन्धकार को ज्ञान के प्रकाश द्वारा दूर करता है. किन्तु अर्वाचीन युग में सर्वत्र गुरु के मायने बदलते हुए दिखाते है. अधिकतर लोग गुरु उसे मानते है जो उनकी मन्नतो से रीझ कर उनके कष्टों का निवारण चमत्कारिक रूप से करावा दे. यह बड़ी ही जटिल विडम्बना है. अक्सर ऐसे लोगोसे मुलाकात होती है जो की कहेते है कि हम तो भैया फलां बाबाजी में विश्वास रखते है और नियमित रूप से हर गुरुवार के दिन उनके मंदिर में दर्शन करने जाते है और चढ़ाव चढाते है. किसी संत के मंदिर या आश्रम में जाना और यथोचित एवं यथा शक्ति योगदान देना सर्वथा सरहानीय है इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती. हमारे यहाँ अनगिनत संत महात्माओं ने अपने जीवन काल में ऐसे स्थान स्थापित किये है जहांसे निरंतर लोगोकी सेवाके कार्य किये जाते है और उन संत महत्मोके देह त्यागने के उपरांत उनके उत्तराधिकारी, परिवार या भक्त मंडल उस कार्य को अविरत रूपसे आगे बढ़ाते जाते है. ऐसे स्थानों पर योगदान देना बडाही उचित कार्य है इसमे संदेह नहीं.किन्तु अधिकतर दान दिए जाते है सकाम भावनासे. “बाबा मेरा ये काम करदे तो मई तुझे सोना, चंडी या जेवर चढाऊंगा.” यदि उस संत का जीवन अध्ययन किया जाय तो मालूम पड़ता है कि उस महात्मा ने अपने जीवन कलमें कभीभी ऐसी चीजो की कामना नहीं की थी. वास्तवमे ये सब चिजोसे उनको कोई आसक्ति नहीं थी. किन्तु उस स्थान की महिमा से वह जानेवाले साधारण व्यक्ति की कामनाभी पूर्ण हो जाती है. इस प्रकारकी मदद का कारन उस भूमि में रहे उस संत के तपोबल के आन्दोलन होते है. इस मदद का हेतु उस सामान्य व्यक्ति को इश्वर के प्रति आकृष्ट करनेका होता है. किन्तु अज्ञान और मुर्खता वश सकाम भक्त संत के उस स्थान को अपनी कमाना पूर्तिका सरल साधन समझने लगता है. उसे उस संत के विचारों से या उनके द्वारा कही गाणी अमृतमयी वाणी से को सरोकार नहीं होता. वो संत की महिमा गाता है क्यूंकि “अपना काम हो गया”. वास्तवमे वह संत का संकेत समज नहीं पाता और फिर स्वार्थसे प्रेरित भक्ति में लग जाता है. किसी भी संत के स्थान पर जाओ अथवा यदि वह सदेह बिराज रहे हों तो उनसे मात्र “कल्याण” के आशीर्वाद मांगो और ज्ञान की अपेक्षा रखो. यदि हो सके तो सदेह संत को शिष्य भावसे समर्पित हो जाओ.

याद रहे, जहाँ संवाद संभव हो वाही गुरु शिष्य सम्बन्ध स्थापित हो सकता है. विदेह संत से गुरु शिष्य सम्बन्ध स्थापित करना हरेक के बसकी बात नहीं है. पूर्व जन्म के सम्बन्ध के आधार पर ही कोई कोई विरल व्यक्ति का स्वीकार देह त्यागने के उपरांत संत पुरुष करते है. यह अति दुर्लभ घटना है. ऐसी संभावना लाखोंमे एक के हिसाब से होती है. उचित यही होगाकी आप किसी संत जोकि सदेह बिराज रहे हों उनकी शरण ग्रहण करें.

कई भावुक लोग कहते है की हम हर गुरूवारके दिन फलां फलां गुरुके मंदिर में दर्शन करने जाते है. या फलां फलां पीर की दरगाह पर चादर चढाते हैं. हमने तो बस उन्हीको गुरु मान लिया है. हमें कोई गुरुकी आवश्यकता नहीं है. वास्तवमे यह गलत है. आपको अवश्य किसी संत या पीर साहब के आशीर्वाद प्राप्त हो सकते हैं पर वह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता जो एक सदेह गुरु आपके साथ संवाद द्वारा दे सकता हो. गुरु और शिष्यके बिच संवाद अति आवश्यक है. हमारे यहाँ कई ऐसे संत हो गए जिनके जीवन कालमें उनके द्वारा जन सुख हेतु कई चमत्कार किये हों पर अपनी कोई परंपरा की स्थापना नहीं की हो. ऐसी जगहों पर आप अवश्य आशीर्वाद प्राप्तिके लिए जा सकते हैं, इनके स्थान पर तपस्याके बड़े प्रबल आन्दोलन (वाइब्रेशन) होते है जो आपको शांति दे सकते है और उनका अनुग्रह आपकी कुछ बाधाओंका निवारण कर सकता है किन्तु वह अध्यात्मिक जीवनमे सहायभूत नहीं होता. सुचारू आध्यात्मिक प्रगतिके लिए आपको ऐसा सदगुरु ढूढ़ना चाहिए जोकि आपको अपना अनुभव सिद्ध मार्गदर्शन दे सके. सदगुरु वह होता है जो स्वानुभव सिद्ध ज्ञान देता है नहीं की मात्र किताबोंमे लिखा हुआ.

याद रहे, हम ज्ञानकी उपासना करनेवाली प्रजा हैं. हमारे आदि ग्रन्थ वेद कहे जाते हैं. “वेद” शब्द का अर्थ होता है “जानना” “जाना हुआ” अर्थात “ज्ञान”. हमारे वेद अपौरुषेय कहेलाते हैं क्यूंकि उनकी रचना किसी मानवने नहीं की है. हमारे महर्षियोंने जिन मन्त्रोंको अपनी समाधी अवस्थामे देखा या सुना वह उनमे संगृहीत है. इसलिए हमारे वेद दिव्य है. यही हमारी वास्तविक परंपरा रही है. गुरुके पास स्वतः प्राप्त ज्ञान होना चाहिए. गुरु शब्द शिक्षक शब्दका पर्यायवाची नहीं है. गुरु वह है जो अपने ज्ञानके द्वारा व्यक्तिके जीवनमे दिव्या प्रकाश लाता है.

यदि आप किसी गुरुके पास जाओ और उनके शिष्य बनना चाहो तो उनसे कभी ये मत कहेना की “मुझे ये उपासना चाहिए या वो उपासना चाहिए.” उनसे मात्र “आश्रय” मांगना. उनकी शरण ग्रहण करना. समर्थ गुरु कभी चमत्कार के अवलम्बन से शिष्य नहीं बानाता है. चमत्कार तो अति सामान्य वस्तु है. गुरुका काम शिष्यको जगानेका है. गुरुका काम शिष्यको उसकी वास्तविक शक्ति बतानेका है.

यदि आप अध्यात्म मार्गके प्रवासी हैं तो आपको अवश्य सद गुरु की खोज करनी चाहिए. गुरु कृपाके बिना इष्ट देवकी कृपा पाना अति कठिन है.

जय शिव शक्ति

श्रीयोगेश्वर चैतन्य

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